रक्तसाक्षी धर्मवीर पंडित लेखराम आर्यमुसाफिर
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रक्तसाक्षी धर्मवीर पंडित लेखराम ‘आर्यमुसाफिर’
गजल
धर्म के नाम पर प्यारों ! तुम्हें मरना नहीं आता!
लहू से कास-ए-तकदीर को भरना नहीं आता!!
छुरी से पेट फड़वाना तुम्हें आता नहीं यारो!
हकीकत की तरह कुरबान सर करना नहीं आता!!
धर्म की राह पर चलना तुम्हें अब हो गया मुश्किल!
छुरी की धार पर तुमको कदम धरना नहीं आता!!
तबाही का तुम्हारी एक ही कारण है बस मित्रो!
तुम्हें कहना तो आता है, मगर करना नहीं आता!!
‘मुसाफिर’ मरहबा सद-मरहबा है तेरी हिम्मत को!
धर्म की राह में ओ नर! तुझे डरना नहीं आता!!
-कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर
अविभाजित भारत के झेलम जिले के सैयदपुर नामक ग्राम में पिता तारासिंह जी एवं माता भागभरीदेवी के घर चैत्र शुक्लपक्ष अष्टमी संवत १९१५ को जन्मे लेखराम जी ने मिडिल तक उर्दू फारसी की शिक्षा अपने ग्राम में व पेशावर में प्राप्त की। सभी प्रमाणिक साहित्यिक ग्रन्थों को छोटी सी आयु में पढ़ डाला।आप मत, पन्थो का अध्ययन करते रहे।
१७ मई १८८१ को अजमेर में महर्षि दयानन्द के प्रथम व अंतिम दर्शन किये, शंका-समाधान किया, उपदेश सुने और सदैव के लिए वैदिकधर्म के हो गए। इस युग में विधर्मियों की शुद्धि के लिए सबसे अधिक उत्साह दिखाने वाले पं.लेखराम ही थे, इस कार्य के लिए उन्होंने दस वर्ष की पुलिस की नौकरी ही नहीं, अपना जीवन तक दे दिया।
एषणाओं से मुक्त, सत्यनिष्ठ लेखरामजी धर्म के धुनी ऐसे बने कि उनके पिताजी की मृत्यु हुई तो भी वे घर में न रुके। बस, गए! और चल पड़े! उन्हें भाई की मृत्यु की सूचना प्रचार-यात्रा में ही मिली, फिर भी निरन्तर् प्रचार में ही लगे रहे। सवा वर्ष के इकलौते पुत्र की मृत्यु से भी विचलित न हुए, पत्नी लक्ष्मीदेवी जी को परिवार में छोड़कर फिर चल पड़े। आपने घूम घूमकर वैदिक धर्म का प्रचार करने के साथ आर्यसमाजों की स्थापना की, हिन्दुओं को विधर्मी बनने से बचाया, मौलवियों सहित हजारों को वैदिक धर्मी बनाया, वेद विरोधियों, विशेषकर मुस्लिम विद्वानों को चुनौतियां दीं, धर्म पर लगाये उनके आक्षेपों का मुंहतोड़ उत्तर देते थे- लेख के बदले लेख, किताब के बदले किताब जो ‘कुलियात आर्यमुसाफिर’ के रूप में संगहीत है।
एक दिन प्रचारकार्य से घर पहुंॅचकर भोजन करते उन्हें सूचना मिली कि लुधियाना के एक गांव में हिन्दुओं का धर्मान्तरण किया जा रहा है। भोजन के ग्रास को थाली में छोड़ा! अस्वस्थ पुत्र को काल के ग्रास में! मेल एक्सप्रेस रेलगाड़ी में बैठ गए! जब पता चला कि गाड़ी छोटे गाँव पर रुकेगी नहीं, तो चलती रेल से छलांग लगा दी। लहुलुहान स्थिति में आप वहाँ पहुंॅचे जहांॅ हिन्दुओं को धर्मान्तरित कर मुसलमान बनाया जाना था। यह देखकर सभी बन्धु स्तब्ध रह गये कि कोई व्यक्ति उनके धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा सकता है। उन्होंने धर्मान्तरण का अपना निश्चय त्याग दिया।
इनके धर्म रक्षा, शुद्धि, इस्लाम खंडन से कुपित मुसलमानों ने षड्यंत्रपूर्वक एक युवक को आपके पास भेजा, जिसने आकर शुद्धि कि इच्छा जताई, भोजन के रूप में पंडितजी का नमक भी खाया और नमकहरामी की परंपरा का पालन करते हुए फाल्गुन शुक्ल पक्ष ततृतीया संवत १९५३ विक्रमी शनिवार ०६ मार्च १८९७ ई० को अंगड़ाई ले रहे पंडितजी के पेट में छुरा घोंपकर भाग गया और महर्षि की जीवनी को व्यवस्थित करते रक्तसाक्षी महर्षि से जा मिले!
पं. लेखराम जी की मृत्यु पर माता लक्ष्मीदेवी जी को इंश्योरेंस से जो बीमे की राशि मिली थी, वह उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी को पं. बुद्धदेव विद्यालंकार जी की शिक्षा में व्यय के लिए दान में दे दी थी।
पंडित लेखराम के जीवन के विषय में अलभ्य संस्मरण
SEP 2 • PILLARS OF ARYA SAMAJ • 2797 VIEWS • 1 COMMENT
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पंडित लेखराम के विषय में जितना अधिक में जानता जाता हूँ उतनी ही अधिक उन्हें जानने की मेरी इच्छा बलवती होती जाती हैं। पंडित जी के जीवन कुछ अलभ्य संस्मरण मुझे मिले जिन्हें मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
१. आचार्य रामदेव जी की पंडित लेखराम जी से प्रथम भेंट
उन्हीं दिनों बच्छो वाली आर्य समाज के एक साप्ताहिक अधिवेशन में मैंने देखा की एक हट्टा कट्टा रोबदार पंजाबी रौबदार जवान व्याख्यान देने के लिए समाज की वेदी पर आया। वह लुधियाना के कपड़े का बंद गले का कौट पहने था , परन्तु कोट के ऊपर वाले बटन खुले हुए थे। सर पर पगड़ी थी। उसका शमला बहुत लम्बा था। देखने में वह व्यक्ति पहलवान प्रतीत होता था। वेदी पर आते ही उसने व्याख्यान शुरू कर दिया। वह बड़ी ऊँची आवाज़ में और बड़ी जल्दी जल्दी बोलता था। अपने पास बैठे हुए एक महाशय से मैंने पूछा “यह कौन हैं ?” उसने आश्चर्य से यह उत्तर दिया। यह आर्य समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान प्रचारक पंडित लेखराम जी हैं। मैं व्याख्यान सुनने लगा। सुनने क्या लगा, व्याख्यान ने मुझे अपनी तरफ आकृष्ट कर लिया। पंडित जी एक घंटा बोले। उनका भाषण सचमुच ज्ञान का भण्डार था। अपने व्याख्यान में उन्होंने इतने अधिक वेद मन्त्रों, फारसी अरबी के वाक्यों तथा यूरोपियन विद्वानों के प्रमाण और उद्दरण दिये की मैं आश्चर्य चकित रह गया। मेरे दिल में आया यदि व्याख्याता बनना हो तो इसे आदर्श मानना चाहिए। मैंने सचमुच उन्हें अपना आदर्श बनाया। उस दिन के बाद से मैं जो कुछ पढ़ता उसे जज्ब करने की कोशिश करता। पुस्तकों पर निशान लगाने की आदत भी मैंने उसी दिन से डाली। दस-बारह वर्षों के बाद पढ़े हुए उद्वरणों को मैं अपने रजिस्टर में लिखने लगा। आज इस प्रकार के रजिस्टर मेरे पास बहुत अधिक संख्या में हैं, और मैं इन्हें अमूल्य संपत्ति समझता हूँ।
पंडित जी का व्याख्यान सुनकर मुझ पर यह प्रभाव पड़ा था की वे संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी और अरबी के प्रकाण्ड विद्वान हैं , परन्तु पीछे से यह जानकार मेरे आश्चर्य की सीमा न रही की वे संस्कृत बहुत थोड़ी जानते हैं और अंग्रेजी तो बिलकुल ही नहीं जानते। हाँ अरबी और फारसी के अभिज्ञ तो वे अवश्य थे।
मैं चकित था की एक भाषा का ज्ञान न होते हुए भी वे उसके इतने अधिक प्रमाण वे किस तरह सुनाते हैं।
मजा तो यह हैं की उन प्रमाणों में एक भी अशुद्ध नहीं होता। यह रहस्य भी एक दिन खुल गया।
एक दिन मैं रविवार के अतिरिक्त किसी और दिन बच्छोवाली आर्य समाज के मंदिर में गया। वहां एक टोली जमा थी। कोटहलवश मैं भी उसी में शामिल हो गया। वहां देख की पंडित लेखराम जी दो ग्रेजुएटों को घेर कर बैठे हैं। एक ग्रेजुएट को वे बड़ी जोर से डांट बता रहे थे ,”बी ए पास करके भी तुमने अंग्रेजी नहीं सीखी, मैक्स मूलर के एक उद्दरण का तुमने अशुद्ध अनुवाद किया हैं। ” वह ग्रेजुएट बिलकुल सतपटाया हुआ था। तथापि उसे मालूम था की पंडित जी अंग्रेजी बिलकुल नहीं जानते। साहस करके उसने बोला यह आपको कैसे मालूम? पंडित जी ने दुसरे ग्रेजुएट से पुछा ,’बताओ भी इसमें क्या गलती हैं’ दोनों नये नये ग्रेजुएट एक दूसरे से पिल पड़े। थोड़ी देर के मुबाहिसे के बाद पहले ग्रेजुएट ने स्वीकार किया की उसका अनुवाद अशुद्ध था। पीछे से मुझे मालूम पड़ा की पंडित जी सदैव ऐसा ही करते हैं। संस्कृत उद्दरणों के लिए संस्कृतज्ञों को और अंग्रेजी के उद्दरणों के लिए अंग्रेजीज्ञों लोगों को एक दूसरे से भिड़ाकर इस दोनों भाषायों के प्रमाण जमा करते हैं। मुझ पर पंडित जी के इस सत्य प्रेम और स्व पक्ष पुष्ठी की निष्ठा ने बहुत गहरा प्रभाव डाला। मैंने सोचा जो व्यक्ति एक भाषा बिलकुल न जानते हुए भी इतने अध्यवसाय से उसके प्रमाण जमा कर सकता हैं, उसके मार्ग में कोई कठिनाई अंकुरित नहीं हो सकती।
२. पंडित जी की निर्भीकता
पंडित जी जहाँ एक ओर असाधारण विद्वान थे वहां दूसरी और वे एक वीर शहीद की भांति निर्भीक और साहसी भी थे। मेरे एक मित्र ब्रहम समाज के नेता ने उनका नाम “आर्यसमाज का अली” रखा था।
अपने विवाह के बाद एक दिन मैं लाला मुंशीराम जी के निवास स्थान पर बैठा था। उन दिनों वे लाला जी कहलाते थे। उसी समय पंडित लेखराम जी उनसे मिलने उनके घर आये। लाला मुंशीराम जी उनदिनों आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे और पंडित लेखराम जी उस सभा के एक वैतनिक उपदेशक। आज आर्य समाज के अनेक अधिकारी आर्यसमाज के वास्तविक आजन्म सेवक को, जो असल में आर्यसमाज के प्राण हैं, केवल इसलिए सभा का वेतन भोगी सेवक समझते हैं क्यूंकि अपना सम्पूर्ण समय आर्यसमाज की सेवा में व्यय कर देने के कारण उनके लिए सभा से आजीविका मात्र वृति लेना आवश्यक होता हैं, परन्तु उन दिनों यह बात न थी। प्रतिनिधि सभा उन दिनों उपदेशकों का मान करना जानती थी। यहाँ तक की सभा के अधिकारी प्रभावशाली प्रचारकों से चुपचाप डांट खाने में भी अपनि मानहानि नहीं सनाझते थे। जब पंडित लेखराम जी माकन पर आये तब प्रधान जी उठे और पंडितजी के उठने के बाद ही बैठे।
नमस्कार आदि के बाद प्रधान जी ने कहा “सभा के कार्यालय से सूचना दी गई थी की इस सप्ताह आप …..नगर में प्रचार के लिये जावेंगे, परन्तु अब आपका प्रोग्राम बदल दिया हैं, अब आप … जायेगा।”
पंडित जी ने पुछा “यह किसलिए” ?
प्रधान जी ने उत्तर दिया की ” मुझे विश्वस्त सूत्र से विदित हुआ हैं की ….. के मुस्लमान आपके प्राण लेने का कुचक्र रच रहे हैं। यदि आपको अपने जीवन की चिंता नहीं तो मुझे तो उसकी चिंता करनी चाहिए न।
न मालूम क्यूँ पंडित जी को क्रोध आ गया। वे असाधारण जोश में आकर बोले लाला जी,” आप जैसे डरपोक यदि संस्था में बहुत अधिक बढ़ गये, तो आर्यसमाज का बेड़ा अवश्य डूब जायेगा”। मैं मरने से नहीं डरता। अब तो मैं अवश्य ही वहीँ जाऊँगा।
प्रधान जी तब भी मुस्कुरा रहे थे। इस बार उन्होंने नियंत्रण से काम लेना चाहा। उन्होंने कहा ,”मैं सभा के प्रधान की हैसियत से आपका ….. जाना आवश्यक समझता हूँ, इसलिए मैंने आपका प्रोग्राम बदल दिया हैं। मेरी आपसे प्रार्थना हैं की अब आप बताये हुए प्रोग्राम का ही अनुसरण करे”।
इस पर पंडित जी ने जरा नर्म आवाज़ में जवाब दिया, परन्तु उनकी जिद्द उसी तरह कायम थी। उन्होंने कहा ,”मुझे मालूम हैं की आपको मुझसे बहुत मोह हैं, उस मोह में कायरता पूर्ण वकालत मिलकर आप मुझे …… न जाने के लिए बाधित करना चाहते हैं, परन्तु मैं यह स्पष्ट शब्दों में कह देता हूँ की अब तो जरुर वहीँ जाऊँगा। यदि आप मुझे सभा की तरफ से नहीं भेजेगे तो मैं अवैतनिक अवकाश लेकर अपने किराये से वहाँ जाऊँगा”।
मुझे स्मरण हैं की उन दिनों पंडित जी सभा से केवल ५० रुपये मासिक वेतन पाते थे।
प्रधान जी भला उनकी इस निर्भीक घोषणा का क्या जवाब देते?
उन्होंने केवल इतना ही कहा।
“आप जहाँ चाहे जा सकते हैं अब मैं आपको किसी भी बात के लिए बाधित नहीं करूँगा। सचमुच हमारी सभा का यह सौभाग्य हैं की आप जैसे वीर पुरुष की सेवा उसे प्राप्त हैं।”
३. पंडित जी का विपक्षी के साथ व्यवहार
एक दिन लाहौर की सनातन धर्म सभा में किसी सनातनी पंडित का व्याख्यान था।
मैं भी यह व्याख्यान सुनने गया था। वह व्याख्यान मैंने बड़े ध्यान से सुना था और उसका सार मुझे याद हो गया था।
भाषण सुनने के बाद घर की तरफ लौटते हुए राह में अचानक पंडित लेखराम जी से मुलाकात हो गई।
वे मेरा नाम जानते थे। उन्होंने मुझसे पुछा “कहाँ से आ रहे हो”।
मैंने कहा सनातन धर्म सभा के भवन से। उन्होंने पुछा ,”वहां क्या करने गये थे?”
मैंने उत्तर दिया ,”व्याख्यान सुनने।”
पंडित जी ने पुछा ,”व्याख्यान में क्या क्या बातें सुनी?”
मैंने उस भाषण का सारांश पंडित जी को सुना दिया।
पंडित जी ने मेरी पीठ पर हाथ रखकर मुझे शाबासी दी और कहा ,” शाबाश प्रत्येक चीज को इसी तरह ध्यान से सुना करो।
मैंने पूछा ,”क्या इस व्याख्यान की बातें ठीक हैं?”
पंडित जी ने एक डीएम उत्तर नहीं दिया और कहा,”मेरे यहाँ आना, मैं तुम हें इस सभी बातों का विस्तृत उत्तर दूँगा।”
पंडित लेखराम जी सचमुच अपने विश्वास के इतने ही पक्के थे।
उन्हें कभी यह आशंका नहीं होती थी की मेरे विचारों में कभी कोई अशुद्धि या भ्रान्ति भी हो सकती हैं।
अपने विपक्षियों की बातें तो वे बड़ी सभ्यता और शांति से सुनते थे, परन्तु उनके दिल में तो यही होता था की यह व्यक्ति गुमराह और अशुद्ध विचारों का हैं।
(सन्दर्भ- ग्रन्थ विशाल भारत मासिक जनवरी-जून अंक १९३० पृष्ठ संख्या २१४-२१६)
४. पंडित लेखराम जी की सिंह गर्जना
एक बार अपने बलिदान से ३,४ वर्ष पूर्व पंडित लेखराम जी आर्य समाज लुधियाना में प्रचार के लिये पधारे। इस अवसर पर बाहर से आये हुए अन्य महाभुनाव भी पधारे थे। लुधियाना का यह पहला ही अवसर था की पंडित लेखराम जी ने इस्लाम के खंडन पर समाज द्वारा खुला व्याख्यान देने की घोषणा की थी। व्याख्यान से १५,२० मिनट पहले पंडित लेखराम जी के पेट में ऐसा सख्त दर्द उठा की उनको उत्सव मंडप छोड़ना पड़ा। उस समय कई डॉक्टर पंडित लेखराम
जी की चिकित्सार्थ पहुँचे।उस समय उनको दर्द से इतना बैचैन देखकर इतना आश्चर्य होता था की ऐसे धीर और वीर पुरुष दर्द से इतना व्याकुल क्यूँ हो रहे हैं। परन्तु पता चला की इस बैचनी का कारण केवल पेट का दर्द ही नहीं था। परन्तु उन्हें यह ख्याल बैचैन किये हुए था की जो मुस्लमान व्याख्यान सुनने के लिए आये हुए हैं वह सब निराश होकर लौट जायेगे। उन्होंने डॉक्टरों से यही निवेदन किया की उन्हें शीघ्र ही व्याख्यान देने के योग्य कर दे। और डॉक्टरों के इंजेक्शन द्वारा इस योग्य कर दिया की वह खड़े होकर व्याख्यान दे सके। उनका यह व्याख्यान आर्यसमाज के इतिहास में चिर स्थायी रहेगा। व्याख्यान क्या था शेर की गर्जना थी।
पंडित लेखराम के जीवन के विषय में कुछ रोचक संस्मरण
(पंडित लेखराम बलिदान दिवस 6 मार्च के अवसर पर प्रकाशित)
-डॉ विवेक आर्य
पंडित लेखराम के विषय में जितना अधिक में जानता जाता हूँ उतनी ही अधिक उन्हें जानने की मेरी इच्छा बलवती होती जाती हैं। पंडित जी के जीवन कुछ अलभ्य संस्मरण मुझे मिले जिन्हें मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
१. आचार्य रामदेव जी की पंडित लेखराम जी से प्रथम भेंट
उन्हीं दिनों बच्छो वाली आर्य समाज के एक साप्ताहिक अधिवेशन में मैंने देखा की एक हट्टा कट्टा रोबदार पंजाबी रौबदार जवान व्याख्यान देने के लिए समाज की वेदी पर आया। वह लुधियाना के कपड़े का बंद गले का कौट पहने था , परन्तु कोट के ऊपर वाले बटन खुले हुए थे। सर पर पगड़ी थी। उसका शमला बहुत लम्बा था। देखने में वह व्यक्ति पहलवान प्रतीत होता था। वेदी पर आते ही उसने व्याख्यान शुरू कर दिया। वह बड़ी ऊँची आवाज़ में और बड़ी जल्दी जल्दी बोलता था। अपने पास बैठे हुए एक महाशय से मैंने पूछा "यह कौन हैं ?" उसने आश्चर्य से यह उत्तर दिया। यह आर्य समाज के सुप्रसिद्ध विद्वान प्रचारक पंडित लेखराम जी हैं। मैं व्याख्यान सुनने लगा। सुनने क्या लगा, व्याख्यान ने मुझे अपनी तरफ आकृष्ट कर लिया। पंडित जी एक घंटा बोले। उनका भाषण सचमुच ज्ञान का भण्डार था। अपने व्याख्यान में उन्होंने इतने अधिक वेद मन्त्रों, फारसी अरबी के वाक्यों तथा यूरोपियन विद्वानों के प्रमाण और उद्दरण दिये की मैं आश्चर्य चकित रह गया। मेरे दिल में आया यदि व्याख्याता बनना हो तो इसे आदर्श मानना चाहिए। मैंने सचमुच उन्हें अपना आदर्श बनाया। उस दिन के बाद से मैं जो कुछ पढ़ता उसे जज्ब करने की कोशिश करता। पुस्तकों पर निशान लगाने की आदत भी मैंने उसी दिन से डाली। दस-बारह वर्षों के बाद पढ़े हुए उद्वरणों को मैं अपने रजिस्टर में लिखने लगा। आज इस प्रकार के रजिस्टर मेरे पास बहुत अधिक संख्या में हैं, और मैं इन्हें अमूल्य संपत्ति समझता हूँ।
पंडित जी का व्याख्यान सुनकर मुझ पर यह प्रभाव पड़ा था की वे संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी और अरबी के प्रकाण्ड विद्वान हैं , परन्तु पीछे से यह जानकार मेरे आश्चर्य की सीमा न रही की वे संस्कृत बहुत थोड़ी जानते हैं और अंग्रेजी तो बिलकुल ही नहीं जानते। हाँ अरबी और फारसी के अभिज्ञ तो वे अवश्य थे।
मैं चकित था की एक भाषा का ज्ञान न होते हुए भी वे उसके इतने अधिक प्रमाण वे किस तरह सुनाते हैं।
मजा तो यह हैं की उन प्रमाणों में एक भी अशुद्ध नहीं होता। यह रहस्य भी एक दिन खुल गया।
एक दिन मैं रविवार के अतिरिक्त किसी और दिन बच्छोवाली आर्य समाज के मंदिर में गया। वहां एक टोली जमा थी। कोटहलवश मैं भी उसी में शामिल हो गया। वहां देख की पंडित लेखराम जी दो ग्रेजुएटों को घेर कर बैठे हैं। एक ग्रेजुएट को वे बड़ी जोर से डांट बता रहे थे ,"बी ए पास करके भी तुमने अंग्रेजी नहीं सीखी, मैक्स मूलर के एक उद्दरण का तुमने अशुद्ध अनुवाद किया हैं। " वह ग्रेजुएट बिलकुल सतपटाया हुआ था। तथापि उसे मालूम था की पंडित जी अंग्रेजी बिलकुल नहीं जानते। साहस करके उसने बोला यह आपको कैसे मालूम? पंडित जी ने दुसरे ग्रेजुएट से पुछा ,'बताओ भी इसमें क्या गलती हैं' दोनों नये नये ग्रेजुएट एक दूसरे से पिल पड़े। थोड़ी देर के मुबाहिसे के बाद पहले ग्रेजुएट ने स्वीकार किया की उसका अनुवाद अशुद्ध था। पीछे से मुझे मालूम पड़ा की पंडित जी सदैव ऐसा ही करते हैं। संस्कृत उद्दरणों के लिए संस्कृतज्ञों को और अंग्रेजी के उद्दरणों के लिए अंग्रेजीज्ञों लोगों को एक दूसरे से भिड़ाकर इस दोनों भाषायों के प्रमाण जमा करते हैं। मुझ पर पंडित जी के इस सत्य प्रेम और स्व पक्ष पुष्ठी की निष्ठा ने बहुत गहरा प्रभाव डाला। मैंने सोचा जो व्यक्ति एक भाषा बिलकुल न जानते हुए भी इतने अध्यवसाय से उसके प्रमाण जमा कर सकता हैं, उसके मार्ग में कोई कठिनाई अंकुरित नहीं हो सकती।
२. पंडित जी की निर्भीकता
पंडित जी जहाँ एक ओर असाधारण विद्वान थे वहां दूसरी और वे एक वीर शहीद की भांति निर्भीक और साहसी भी थे। मेरे एक मित्र ब्रहम समाज के नेता ने उनका नाम "आर्यसमाज का अली" रखा था।
अपने विवाह के बाद एक दिन मैं लाला मुंशीराम जी के निवास स्थान पर बैठा था। उन दिनों वे लाला जी कहलाते थे। उसी समय पंडित लेखराम जी उनसे मिलने उनके घर आये। लाला मुंशीराम जी उनदिनों आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे और पंडित लेखराम जी उस सभा के एक वैतनिक उपदेशक। आज आर्य समाज के अनेक अधिकारी आर्यसमाज के वास्तविक आजन्म सेवक को, जो असल में आर्यसमाज के प्राण हैं, केवल इसलिए सभा का वेतन भोगी सेवक समझते हैं क्यूंकि अपना सम्पूर्ण समय आर्यसमाज की सेवा में व्यय कर देने के कारण उनके लिए सभा से आजीविका मात्र वृति लेना आवश्यक होता हैं, परन्तु उन दिनों यह बात न थी। प्रतिनिधि सभा उन दिनों उपदेशकों का मान करना जानती थी। यहाँ तक की सभा के अधिकारी प्रभावशाली प्रचारकों से चुपचाप डांट खाने में भी अपनि मानहानि नहीं सनाझते थे। जब पंडित लेखराम जी माकन पर आये तब प्रधान जी उठे और पंडितजी के उठने के बाद ही बैठे।
नमस्कार आदि के बाद प्रधान जी ने कहा "सभा के कार्यालय से सूचना दी गई थी की इस सप्ताह आप .....नगर में प्रचार के लिये जावेंगे, परन्तु अब आपका प्रोग्राम बदल दिया हैं, अब आप ... जायेगा।"
पंडित जी ने पुछा "यह किसलिए" ?
प्रधान जी ने उत्तर दिया की " मुझे विश्वस्त सूत्र से विदित हुआ हैं की ..... के मुस्लमान आपके प्राण लेने का कुचक्र रच रहे हैं। यदि आपको अपने जीवन की चिंता नहीं तो मुझे तो उसकी चिंता करनी चाहिए न।
न मालूम क्यूँ पंडित जी को क्रोध आ गया। वे असाधारण जोश में आकर बोले लाला जी," आप जैसे डरपोक यदि संस्था में बहुत अधिक बढ़ गये, तो आर्यसमाज का बेड़ा अवश्य डूब जायेगा"। मैं मरने से नहीं डरता। अब तो मैं अवश्य ही वहीँ जाऊँगा।
प्रधान जी तब भी मुस्कुरा रहे थे। इस बार उन्होंने नियंत्रण से काम लेना चाहा। उन्होंने कहा ,"मैं सभा के प्रधान की हैसियत से आपका ..... जाना आवश्यक समझता हूँ, इसलिए मैंने आपका प्रोग्राम बदल दिया हैं। मेरी आपसे प्रार्थना हैं की अब आप बताये हुए प्रोग्राम का ही अनुसरण करे"।
इस पर पंडित जी ने जरा नर्म आवाज़ में जवाब दिया, परन्तु उनकी जिद्द उसी तरह कायम थी। उन्होंने कहा ,"मुझे मालूम हैं की आपको मुझसे बहुत मोह हैं, उस मोह में कायरता पूर्ण वकालत मिलकर आप मुझे ...... न जाने के लिए बाधित करना चाहते हैं, परन्तु मैं यह स्पष्ट शब्दों में कह देता हूँ की अब तो जरुर वहीँ जाऊँगा। यदि आप मुझे सभा की तरफ से नहीं भेजेगे तो मैं अवैतनिक अवकाश लेकर अपने किराये से वहाँ जाऊँगा"।
मुझे स्मरण हैं की उन दिनों पंडित जी सभा से केवल ५० रुपये मासिक वेतन पाते थे।
प्रधान जी भला उनकी इस निर्भीक घोषणा का क्या जवाब देते?
उन्होंने केवल इतना ही कहा।
"आप जहाँ चाहे जा सकते हैं अब मैं आपको किसी भी बात के लिए बाधित नहीं करूँगा। सचमुच हमारी सभा का यह सौभाग्य हैं की आप जैसे वीर पुरुष की सेवा उसे प्राप्त हैं।"
३. पंडित जी का विपक्षी के साथ व्यवहार
एक दिन लाहौर की सनातन धर्म सभा में किसी सनातनी पंडित का व्याख्यान था।
मैं भी यह व्याख्यान सुनने गया था। वह व्याख्यान मैंने बड़े ध्यान से सुना था और उसका सार मुझे याद हो गया था।
भाषण सुनने के बाद घर की तरफ लौटते हुए राह में अचानक पंडित लेखराम जी से मुलाकात हो गई।
वे मेरा नाम जानते थे। उन्होंने मुझसे पुछा "कहाँ से आ रहे हो"।
मैंने कहा सनातन धर्म सभा के भवन से। उन्होंने पुछा ,"वहां क्या करने गये थे?"
मैंने उत्तर दिया ,"व्याख्यान सुनने।"
पंडित जी ने पुछा ,"व्याख्यान में क्या क्या बातें सुनी?"
मैंने उस भाषण का सारांश पंडित जी को सुना दिया।
पंडित जी ने मेरी पीठ पर हाथ रखकर मुझे शाबासी दी और कहा ," शाबाश प्रत्येक चीज को इसी तरह ध्यान से सुना करो।
मैंने पूछा ,"क्या इस व्याख्यान की बातें ठीक हैं?"
पंडित जी ने एक डीएम उत्तर नहीं दिया और कहा,"मेरे यहाँ आना, मैं तुम हें इस सभी बातों का विस्तृत उत्तर दूँगा।"
पंडित लेखराम जी सचमुच अपने विश्वास के इतने ही पक्के थे।
उन्हें कभी यह आशंका नहीं होती थी की मेरे विचारों में कभी कोई अशुद्धि या भ्रान्ति भी हो सकती हैं।
अपने विपक्षियों की बातें तो वे बड़ी सभ्यता और शांति से सुनते थे, परन्तु उनके दिल में तो यही होता था की यह व्यक्ति गुमराह और अशुद्ध विचारों का हैं।
(सन्दर्भ- ग्रन्थ विशाल भारत मासिक जनवरी-जून अंक १९३० पृष्ठ संख्या २१४-२१६)
४. पंडित लेखराम जी की सिंह गर्जना
एक बार अपने बलिदान से ३,४ वर्ष पूर्व पंडित लेखराम जी आर्य समाज लुधियाना में प्रचार के लिये पधारे। इस अवसर पर बाहर से आये हुए अन्य महाभुनाव भी पधारे थे। लुधियाना का यह पहला ही अवसर था की पंडित लेखराम जी ने इस्लाम के खंडन पर समाज द्वारा खुला व्याख्यान देने की घोषणा की थी। व्याख्यान से १५,२० मिनट पहले पंडित लेखराम जी के पेट में ऐसा सख्त दर्द उठा की उनको उत्सव मंडप छोड़ना पड़ा। उस समय कई डॉक्टर पंडित लेखराम
जी की चिकित्सार्थ पहुँचे।उस समय उनको दर्द से इतना बैचैन देखकर इतना आश्चर्य होता था की ऐसे धीर और वीर पुरुष दर्द से इतना व्याकुल क्यूँ हो रहे हैं। परन्तु पता चला की इस बैचनी का कारण केवल पेट का दर्द ही नहीं था। परन्तु उन्हें यह ख्याल बैचैन किये हुए था की जो मुस्लमान व्याख्यान सुनने के लिए आये हुए हैं वह सब निराश होकर लौट जायेगे। उन्होंने डॉक्टरों से यही निवेदन किया की उन्हें शीघ्र ही व्याख्यान देने के योग्य कर दे। और डॉक्टरों के इंजेक्शन द्वारा इस योग्य कर दिया की वह खड़े होकर व्याख्यान दे सके। उनका यह व्याख्यान आर्यसमाज के इतिहास में चिर स्थायी रहेगा। व्याख्यान क्या था शेर की गर्जना थी।
(सन्दर्भ-आर्यसमाज लुधियाना का सचित्र ५० वर्षीय इतिहास-बाबुराम गुप्त पृष्ठ संख्या ७)
5. पंडित लेखराम जी पर जब पत्थर फेंके गये
सन १८९४ में करतारपुर, तब जालंधर के अंतर्गत आर्य समाज की स्थापना के समय पंडित लेखराम जी का व्याख्यान हो रहा था तो पौराणिकों ने उन पर पत्थरों से वर्षा आरंभ कर दी। इस पर पंडित लेखराम जी ने कहा की मुझे यह पत्थर खाने में बड़ा आनंद आ रहा हैं। ऐसा भी समय आयेगा जब मेरे मिशन के प्रचारकों पर लोग फूल बरसायेंगे।
पंडित जी का कथन १९२१ में सही साबित हुआ जब सुदूर केरल में मोपला दंगों के समय आर्यसमाज द्वारा किये गये राहत और शुद्धि कार्य के कारण सम्पूर्ण हिन्दू समाज ने आर्य समाज का खुले दिल से स्वागत किया था।
पंडित जी का कथन १९२१ में सही साबित हुआ जब सुदूर केरल में मोपला दंगों के समय आर्यसमाज द्वारा किये गये राहत और शुद्धि कार्य के कारण सम्पूर्ण हिन्दू समाज ने आर्य समाज का खुले दिल से स्वागत किया था।
सन्दर्भ- आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का सचित्र इतिहास- पंडित भीमसेन विद्यालंकार
6. हिन्दू कब सुरक्षित होँगे?
6. हिन्दू कब सुरक्षित होँगे?
पं॰विष्णुदत्तजी ने अपने संस्मरण मेँ लिखा है कि पण्डित लेखराम जी कहा करते थे कि जब हिन्दृ इतने दृढ़ हो जावेगेँ कि वे मुसलमान पुरूष या स्त्री को अपना सहधर्मी बना सकेगेँ तो वे सुरक्षित हो जावेँगे। वह अमृतसर के दरबार साहिब का उदाहरण दिया करते थे कि वहाँ मुसलमान रबाबी कई पीढ़ियोँ से गुरूग्रन्थ साहिब के भजन गाते हैँ किन्तु फिर भी मुसलमान हैँ, इसके विपरीत स्थिति मेँ हिन्दू यदि किसी मस्जिद मेँ प्रतिदिन दीपक जलाता हो या कुरान का पाठ करता हो तो सम्भव नहीँ कि वह एक पीढ़ी मेँ भी अपने धर्म पर टिका रहे। हिन्दुओँ को कट्टरता अपनाने के साथ-साथ विधर्मियोँ के ग्रन्थोँ की कमियोँ का भी अध्धयन करना चाहिए।
7.
दाढ़ी तो बकरे रखते हैँ?
7.
दाढ़ी तो बकरे रखते हैँ?
एक बार घासीपुर जिला मुजफ्फरनगर(उ॰प्र) के सब बड़े-बड़े चौधरियोँ ने मुसलमान बनने का निर्णय कर लिया। तिथि भी निश्चित हो गई। श्री पं॰लेखरामजी को किसी ने सूचना दे दी। पण्डित जी भागदौड़ करके येन-केन प्रकारेण उसी दिन ठीक समय घासीपुर पहुँचे। मौलवियोँ का जमघट लगा हुआ था। अधिक यात्राओँ के कारण पण्डितजी को हजामत का समय न मिला था जिससे उनकी दाड़ी बढ़ी हुई थी। हाँलाकि वो हमेशा केवल मूंछ रखते... थे। मौलवियोँ नेँ बड़ी दाढ़ी के कारण उनको भी मौलवी समझ अपने पास बिठाया और पूछा "दाढ़ी तो हुई, ये मूंछे कैसे?"
पण्डितजी हंसकर बोले "दाढ़ी तो बकरोँ की होती है, मूँछे सिँह की होती हैँ"
मौलवियोँ के कान खड़े हो गये, तब तक पण्डितजी नेँ मंच पर चढ़कर अपना नाम बताया और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। और हमेशा की तरह पण्डितजी के सामने कोई टिक न सका। उनके भाषण सुनकर घासीपुर के सब चौधरी वैदिकधर्मी बन गये।
मित्रोँ, जो घासीपुर मुसलमान होने जा रहा था वहीँ पण्डितजी की वजह से गुरूकुल की स्थापना हुई।
8.
पं॰लेखराम और वेद मेँ मांस भक्षण !
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पं॰लेखराम और वेद मेँ मांस भक्षण !
पंजाब मेँ जब मांस भक्षण के प्रश्न को लेकर एक विवाद बड़ी उग्रता से चल रहा था, पण्डित लेखराम जी आगरा पधारे। पण्डितजी चारपाई पर बैठे हुए आगरा कालेज के कुछ विद्यार्थियोँ से बात कर रहे थे, इतन मेँ पं॰घासीराम जो तब छात्र ही थे, उन्होनेँ लेखरामजी कहा कि "मांस खाने वाले कहते हैँ कि वेदोँ मेँ मांस खाने का विधान है।"
इतना सुनते ही पण्डितजी ने गुस्से से भरकर कहा "जो ऐसा कहत...े हैँ वे झूठ बोलते हैँ"।
घासीराम फिर बोले "अच्छा पण्डितजी अगर वे यह सिद्ध कर देँ तो क्या आप मांस खायेगेँ?"
पण्डितजी उत्तर दिया "प्रथम तो यह असम्भव है परन्तु यदि कोई किसी प्रकार से मांस भक्षण का औचित्य सिद्ध कर दे तो मैँ मांस इसी समय बाजार से मंगवा कर खाऊँगा।"
मित्रोँ, पण्डितजी की वेद-वाणी पर ऐसी अडिग श्रद्वा थी कि मांस-भक्षण जैसे निकृष्ट कर्म को भी करने को तैयार थे यदि कोई वेद से सिद्ध करके दिखा दे।
9. थूकता तो है पर जूता क्योँ लगाता है?
9. थूकता तो है पर जूता क्योँ लगाता है?
डेरा इसमाईल खाँ नगर मेँ एक 'शेख युसफ' की कबर थी, जिससे सैकड़ोँ हिन्दू पुरूष व स्त्रियाँ मुरादेँ माँगने जाते थे, वहाँ के मजावर(कबर पर रहनेवाले मौलवी) मजारपोशी करने वाले के मुख पर थूकते फिर जूते लगाते। एक बार एक हिन्दू नेँ पं॰लेखरामजी से पूछा "वे थूकते तो हैँ परन्तु जूते क्योँ लगाते हैँ?"
पण्डितजी बोले "थूकते इस कारण हैँ कि तुम पारब्रह्म परमात्मा को तजकर कबर पर सिर रगड़ने आए हो और क्योँकि थूक शीध्र सूख जाती है इसलिए जूते भी लगाते हैँ ताकि तुम शीध्र भूल न जाओ"
हिन्दू उत्तर सुनकर लज्जित हुआ।
पण्डितजी बोले "थूकते इस कारण हैँ कि तुम पारब्रह्म परमात्मा को तजकर कबर पर सिर रगड़ने आए हो और क्योँकि थूक शीध्र सूख जाती है इसलिए जूते भी लगाते हैँ ताकि तुम शीध्र भूल न जाओ"
हिन्दू उत्तर सुनकर लज्जित हुआ।
नोट- ये थूक परम्परा आज भी कई मजारो पर बदस्तूर जारी है।
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